गरीब होते वोटर, महज कुछ सालों में अमीर होते राजनेता, स्थानीय स्तर से लेकर नौकरशाहों के बीच तक बढ़ता भ्रष्टाचार
Adr के मुताबिक आधी से अधिक नेता करोड़पति, कई सांसदों विधायको के खिलाफ तो गंभीर आपराधिक मुकदमे दर्ज
देश मे गरीबी का स्तर दिन ब दिन बढ़ते चले जा रहा और स्थानीय स्तर से लेकर नौकरशाहों के बीच तक भ्रष्टाचार की सांतवे आसमान पर है। इसका कारण नेताओ के लोकलुभावन वादे या सत्ता में आने कई प्रकार की मुफ्त योजना देने की घोषणा हो सकता है। इनकी कई ऐसी योजना है जो गरीबों के हितार्थ है पर उनके जानकारी के अभाव में अधिकांश योजनाओं का लाभ अधिकारियों से सांठगांठ कर रसूखदार इसका फायदा उठाते नजर आते है। शायद यही कारण है कि वोट देने वाले जनता दिन प्रतिदिन गरीब होता जा रहा है और इन गरीबों के वोट से जीतकर सत्ता में आने वाले महज 5 सालों में ही तेजी से लखपति करोड़ पति अमिर बनता जा रहा। लोकतंत्र में संसद और विधानसभा देश की जनता का आईना होती हैं। अब राजनीति सेवा नहीं पैसा कमाने का जरिया बन गई है। आज लाभ के इस धन्धे में नेता करोड़पति बन रहे हैं। राजनीति में यह समृद्धि यूं ही नहीं आई है, इसके पीछे किसी न किसी का शोषण और कहीं न कहीं बेईमानी जरूर होती है।
शुरू-शुरू में नेता सही थे, वो चाहते थे गरीब भी समाज में बराबरी पर आ जाएं। और गरीबी ख़त्म हो जाए। बाद के नेताओं ने गरीबी शब्द की जगह जाने क्या सुन लिया और उनका पूरा फोकस गरीबों के घर का खाना ख़त्म करने पर शिफ्ट हो गया। जाने ये भ्रांति नेताओं के मन में कैसे बैठे गई कि गरीब के दिल का रास्ता पेट से होकर गुजरता है। एक बार ये मान भी लेते लेकिन नेताओं को ये लगता है कि वो पेट भी उस गरीब का नहीं उनका खुद का होना चाहिए। कहा जाता है कि देश की आधी आबादी गरीबी में जीवन यापन कर रही है तो हमारे सांसद विधायक भी गरीब होने चाहिये ताकि वे गरीबों के हर परिस्थितियों, उनके दर्द को अच्छी तरह से भांप सके। और उसके कल्याण के लिए सही ढंग से कानून, नियम कायदे बना पाएँ। वही कहा जाता है कि किसी नेता को चुनाव लडऩे के लिए लाखों करोड़ों रूपयों की आवश्यकता होती है।इनके चुनाव में आम आदमी की भूमिका केवल वोट देने तक सिमट कर रह जाती है। वह चुनाव लडऩे की तो कल्पना भी नहीं कर सकता। राजनीति करने वाले राजनेताओ को बहुत अधिक वेतन नहीं मिलता है वो किस बूते पर बड़े शहरों में करोड़ो रूपयो वाले महलनुमा आलिशान भवन में रहते हैं तथा लाखों-करोड़ो की गाडिय़ो में घूमते हैं?
एक चुनाव से दूसरे चुनाव तक महज 5 सालों के फासला होता है, इतने समय मे नेताओ की सम्प्पति 10 से 15 गुना अधिक हो जाती है। वहीं देखा जाये तो सरकारी दफ्तरों में स्थानीय स्तर से लेकर नौकरशाहों के बीच तक भ्रष्टाचार की उलटी गंगा बह रही है। लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि राजनीतिक नेतृत्व ईमानदार हो तो मातहत कैसे भ्रष्टाचार कर सकते हैं? वास्तव में देश के भीतर भ्रष्टाचार की एक श्रृंखला बन चुकी है। देश में व्याप्त राजनीति में मूल्यों के पतन से भ्रष्टाचार की फसल लहलहा रही है। लेकिन सबसे चिंताजनक बात यह है कि राजनीति में धन व बल के बढ़ते वर्चस्व के चलते माफिया व आपराधिक तत्व राजसत्ता पर काबिज होने लगे हैं जिसके चलते भ्रष्टाचार का निरंतर पोषण जारी है। महंगी होती चुनाव प्रणाली ने इसे और प्रोत्साहित किया है। चुनाव में हुए खर्च को चुने गये जन प्रतिनिधि कई गुणा लाभ के साथ वसूलते हैं। जाहिर तौर पर यह पैसा भ्रष्ट आचरण, दलाली, कमीशन व ठेकों से उगाहा जाता है। फिर कमजोर नेतृत्व ने राजसत्ता को बरकरार रखने के लिए जिस तरह माफिया व अपराधियों का सहारा लिया उसके घातक परिणाम अब हमारे सामने आने लगे हैं। न्यायालयों की न्यायिक सक्रियता गाहे-बगाहे सरकारों को फटकार लगाकर स्थिति को सुधारने की कोशिश करती है लेकिन आपेक्षित परिणाम सामने नहीं आ रहे हैं।
(Adr)एशोसियशन फार डेमोक्ट्रेटिक राइट ने देश के तमाम सांसदो और विधायको के चुनाव लड़ते वक्त दिये गये शपथपत्र को जांचा परखा तो सच यही उभरा कि देश में लगभग 70 से 75 करोड़ लोग बीस रुपये रोज पर ही जीवन यापन करने पर मजबूर है। लेकिन संसद और विधानसभा में जनता ने जिन्हे चुन कर भेजा है, उसमें आधी से अधिक नुमाइन्दे करोड़पति है। लोकसभा के 450 से अधिक सांसद करोड़पति है, तो राज्यसभा के भी 150 से ऊपर सदस्य करोड़पति है। देश भर के विधायको में से 2500 से अधिक विधायक करोड़पति है। फिर ये सवाल किसी के भी जहन में आ सकता है तो फिर सांसदो-विधायको के जनता से कैसे सरोकार होते होगें। क्योकि जरुरते ही जब अलग-अलग है, जीने के तौर तरीके, रहन-सहन, आर्थिक स्थिति ही अलग अलग है तो फिर आम जनता से जुड़ाव कैसे होते होगें? रिपोर्ट के मुताबिक सांसदों में से लगभग 50 प्रतिशत सांसदों ने हलफनामा दिया है कि उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं। वहीं कई सांसदों के खिलाफ तो गंभीर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं।
कहने को तो राजनीति को समाज तथा राष्ट्र सेवा का माध्यम समझा जाता है। राजनीति में सक्रिय किसी भी व्यक्ति का पहला धर्म यही होता है कि वह इसके माध्यम से आम लोगों की सेवा करे। समाज व देश के चहुंमुखी विकास की राह प्रसस्त करे। ऐसी नीतियां बनाए जिससे समाज के प्रत्येक वर्ग का विकास हो, कल्याण हो। आम लोगों को सभी मूलभूत सुविधाएं मिल सकें। रोजगार,शिक्षा, स्वास्थय जैसी जरूरतें सभी को हासिल हो सकें। राजनीति के किसी भी नैतिक अध्याय में इस बात का कहीं कोई जिक्र नहीं है कि राजनीति में सक्रिय रहने वाला कोई व्यक्ति इस पेशे के माध्यम से अकूत धन-संपत्ति इकट्ठा करे। नेता अपनी बेरोजगारी दूर कर सके। अपनी आने वाली नस्लों के लिए धन-संपत्ति का संग्रह कर सके। अपनी राजनीति को अपने परिवार में हस्तांरित करता रहे तथा राजनीति को सेवा के बजाए लूट, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, भेदभाव, कट्टरता, जातिवाद, गुंडागर्दी का पर्याय समझने लग जाए। परंतु हमारे देश में कम से कम राजनीति का चेहरा कुछ ऐसा ही बदनुमा सा होता जा रहा है। अफसोस तो इस बात का है कि कई बार अदालती हस्तक्षेप होने के बावजूद राजनेताओं के ढर्रे में सुधार आने के बजाए इसमें और अधिक गिरावट आती जा रही है।
हमारे जनप्रतिनिधि अपना चुनाव खर्च की व्यवस्था भी पूंजीपतियों से करवाते है। क्या कोई भी व्यक्ति बिना किसी काम के किसी को पैसा अर्थात चंदा देता है। सांसद या विधायक बनाने के बाद के उनकी संपत्ति में बेहताशा बढ़ोतरी हो जाती है। लखपति करोड़पति हो जाता है। करोडपति अरबपति हो जाता है वो भी केवल पांच साल में। ये लोग संसद में सवाल पूछने के लिए भी उद्योगपतियों से पैसे लेते है। सरकार का विरोध या समर्थन करने के लिए भी पैसे व पद कि मांग करते है। सांसद या विधायक निधि से होने वाले काम में भी कमीशन लेते है।
आज सांसद, विधायक व अन्य कोई छुटभैया नेता भी महंगी गाडिय़ों में घूमते हैं। राजधानीयो के बड़े होटलों में ठहरते हैं। कोई उनसे यह नहीं पूछता कि अचानक उनके पास इतना धन कहां से आ गया है। वो सब नेता अपने घर से तो लाकर पैसा खर्च करते नहीं हैं। उनके द्वारा खर्च किया जा रहा पैसा सत्ता में दलाली कर कमाया हुआ होता है जिसे जमकर उड़ाते हैं। जब तक सत्ता की दलाली का खेल बन्द नहीं होगा तब तक राजनीति में नैतिकता, सुचिता की बाते करना बेमानी ही होगा।