निजी स्कूलों द्वारा फीस, किताबें, स्टेशनरी और यूनिफॉर्म की कीमतों में भारी वृद्धि ने मध्यम वर्गीय परिवारों की तोड़ी कमर
निजी स्कूलों और दुकानदारों की मिलीभगत से आम जनता की जेब पर पड़ रहा सीधा असर
नए शिक्षण सत्र 2025-26 की शुरुआत के साथ ही निजी स्कूलों द्वारा फीस, किताबें, स्टेशनरी और यूनिफॉर्म की कीमतों में भारी वृद्धि देखी जा रही है। इससे अभिभावकों पर आर्थिक बोझ बढ़ गया है। स्कूल प्रबंधन अभिभावकों को तय दुकानों से ही किताब और यूनिफॉर्म खरीदने को बाध्य कर रहे हैं। शिक्षा विभाग की ओर से इन स्कूलों पर कार्रवाई न करने से कई अभिभावक सवाल उठा रहे हैं कि क्या यह सरकार और निजी स्कूलों के बीच मिलीभगत तो नही है?
अधिनियम के तहत निजी स्कूलों को फीस बढ़ाने से पहले सरकार की अनुमति लेनी आवश्यक थी, लेकिन विभाग की लापरवाही से स्कूल मनमानी फीस वसूलते जा रहे हैं। कई लोग सरकार से जवाब मांग रहे हैं कि आखिरकार यह सरकार और निजी स्कूलों के बीच क्या रिश्ता है जो नियमों की धज्जियां खुलेआम उड़ रही हैं? छत्तीसगढ़ में निजी स्कूलों की मनमानी साफ तौर पर सामने आ रही है।
शिक्षा सभी के लिए जरूरी है। सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की कमी और शिक्षण की गुणवत्ता को लेकर पहले से ही सवाल उठते रहे हैं, जिससे अभिभावक निजी स्कूलों की ओर रुख करते हैं। तो वहीं निजी स्कूल संचालक जमकर फीस वसूल रहे है। अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा के लिए अभिभावक कई तरह के जतन करते है। अपने बच्चों की बेहतर शिक्षा के लिए निजी स्कूलों का सहारा लेते है। निजी स्कूल की मनमानी ऐसी की स्कूल फीस से लेकर कॉपी, किताब और स्कूल ड्रेस में भी कमीशन लेने की शिकायतें हमेशा आती रही है। अभिभावक सबसे ज्यादा मनमर्जी फीस की बढ़ोतरी के साथ साथ अन्य खर्चो को लेकर परेशान है। प्री-नर्सरी कक्षा की सालाना फीस भी कम से कम 15 से 20 हजार, क्लास 1 का 20 से 22 हजार रुपये से शुरू हो रही है, जो मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए चिंता का विषय बन गया है। बढ़ी हुई फीस और महंगी स्टेशनरी के कारण अभिभावकों की आर्थिक स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। दुर्भाग्यवश, सरकार और जनप्रतिनिधि इस मुद्दे पर मौन हैं, जिससे अभिभावकों में निराशा व्याप्त है।
मध्यम वर्गीय परिवारों में निजी स्कूलों की बढ़ती फीस और अन्य खर्चों ने उन्हें दुविधा में डाल दिया है। माता-पिता यह नहीं समझ पा रहे हैं कि वे अपने बच्चों की शिक्षा कैसे जारी रखें। एक अभिभावक ने बताया कि स्कूल प्रबंधन एक विशेष दुकान से किताबें और स्टेशनरी खरीदने के लिए बाध्य कर रहे हैं। वहां कीमतें बहुत ज्यादा होती हैं। खरीदना है तो खरीदो, नहीं तो जाओ कह दिया जाता है। दुकानदार भी स्पष्ट कह देते हैं कि लेना है तो पूरा सेट लो, हम एक बुक किसे बेचेंगे। इसके अलावा, किताबें भी महंगी हो गई हैं। यह हमारे बजट के बाहर है। बेटा-बेटी की शिक्षा के लिए हमें यह सब सहना पड़ रहा है। निजी स्कूलों और दुकानदारों की मिलीभगत से आम जनता की जेब पर सीधा असर पड़ा है।
वहीं अभिभावकों को यह भी डर है कि यदि वे इस विषय पर आवाज उठाते हैं, तो उनके बच्चों के साथ स्कूल में भेदभाव हो सकता है या उन्हें स्कूल से निकाला जा सकता है। इस डर के कारण वे खुलकर विरोध नहीं कर पा रहे हैं और अंदर ही अंदर इस स्थिति से दुखी हैं।हर साल बढ़ती कीमतों ने मध्यमवर्गीय परिवारों की कमर तोड़ दी है। पालक अब सवाल कर रहे हैं कि क्या शिक्षा भी अब व्यापार बन गई है और प्रशासन मूकदर्शक?